लोग और उनके धर्म सामाजिक मानकों द्वारा;
सामजिक नैतिकता के आधार पर परखे जाने चाहिए .
अगर धर्म को लोगो के भले के लिए आवशयक मान लिया जायेगा
तो और किसी मानक का मतलब नहीं होगा .
इतिहास बताता है कि जहाँ नैतिकता और
अर्थशाश्त्र के बीच संघर्ष होता है
वहां जीत हमेशा अर्थशाश्त्र की होती है .
निहित स्वार्थों को तब तक स्वेच्छा से नहीं छोड़ा गया है
जब तक कि मजबूर करने के लिए पर्याप्त बल ना लगाया गया हो .
मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ
जो स्वतंत्रता , समानता , और भाई -चारा सीखाये .
मनुष्य नश्वर है . उसी तरह विचार भी नश्वर हैं .
एक विचार को प्रचार -प्रसार की ज़रुरत होती है ,
जैसे कि एक पौधे को पानी की . नहीं तो दोनों मुरझा कर मर जाते हैं .
राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है
और एक सुधारक जो समाज को खारिज कर देता है
वो सरकार को ख़ारिज कर देने वाले राजनीतिज्ञ से कहीं अधिक साहसी हैं .
No comments:
Post a comment